बांचा: देश का पहला गाँव, जहाँ न किसी घर में चूल्हा है और न किसीको रसोई गैस की है जरूरत

मध्य प्रदेश के बैतूल जिले का बांचा गांव देश का पहला ऐसा गांव है, जहां न किसी घर में लकड़ी के चूल्हे का इस्तेमाल होता है और न ही एलपीजी सिलेंडर का। जानिए कैसे बदली इस आदिवासी बहुल गांव की किस्मत!

बांचा: देश का पहला गाँव, जहाँ न किसी घर में चूल्हा है और न किसीको रसोई गैस की है जरूरत

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बांचा गांव, मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में बसा है। वैसे तो यह एक आम गांव की तरह ही है, लेकिन बीते पांच वर्षों में इस गांव ने देश में एक अलग पहचान बनायी है। दरअसल, यह भारत का पहला धुआं रहित गांव है और यहां न किसी घर में चूल्हा है और न किसी को रसोई गैस की जरूरत है।

बांचा, एक आदिवासी बहुल गांव है और यहां के सभी 74 घरों में सौर ऊर्जा के जरिए खाना बनता है। पहले यहां के लोगों को खाना बनाने के लिए जंगल से लकड़ियां काट कर लानी पड़ती थी, जिससे पर्यावरण को भी काफी नुकसान होता था।

इसे लेकर स्थानीय निवासी अनिल उइके ने द बेटर इंडिया को बताया, “हम पहले खाना बनाने के लिए जंगल से लकड़ी लाते थे। हर दिन कम से कम 20 किलो लकड़ी की जरूरत पड़ती थी और हर सुबह हमारा सबसे पहला काम जंगल से लकड़ी लाने का होता था।”

उन्होंने आगे बताया, “यहां के लोग खेती-किसानी और मजदूरी करने वाले हैं और जंगल से लकड़ियां लाने में काफी समय बर्बाद होता था। हमें सरकारी गैस कनेक्शन तो मिलते थे, लेकिन लोग पैसे की कमी के कारण गैस नहीं भरवा पाते थे। वहीं, जो सक्षम थे, उन्हें खाना बनाने के दौरान ही गैस खत्म हो जाने के कारण, काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता था।”

बांचा सोलर गांव

लेकिन, बीते चार-पांच वर्षों में बांचा गांव खेती-किसानी को छोड़कर बिजली के मामले में बिल्कुल आत्मनिर्भर हो चुका है और सोलर पैनल के जरिए न सिर्फ महिलाओं को खाना बनाने में आसानी हो रही है, बल्कि बच्चों को पढ़ाई के लिए एक नई प्रेरणा भी मिली है।

अनिल ने बताया, “सोलर पैनल लगने से गांव की महिलाओं का काफी समय बच रहा है और वे उस समय का इस्तेमाल दूसरे कामों में कर रही हैं। उन्हें अब धुएं से राहत मिल गई है, जो कई बीमारियों की जड़ है। साथ ही, अब बर्तन भी काले नहीं होते हैं।”

उन्होंने आगे बताया, “हमारे गांव में बिजली पहले भी थी। फिर भी, उसका कोई भरोसा नहीं था। लेकिन अब बिजली की कोई दिक्कत नहीं है। इससे बच्चों की पढ़ाई पर भी काफी अच्छा असर हुआ है। उन्हें आईआईटी मुंबई की ओर से स्टडी लैम्प भी उपलब्ध कराए गए हैं।”

कैसे शुरू हुई बदलाव की यह गाथा

इस बदलाव की शुरुआत एक अखबार की टुकड़ी से हुई थी। दरअसल, 2016-17 में भारत सरकार के ओएनसीजी ने एक सोलर चूल्हा चैलेंज प्रतियोगिता का आयोजन किया था। इस दौरान आईआईटी मुंबई के छात्रों ने एक ऐसे चूल्हे को बनाया था, जो सौर ऊर्जा से चल सके। उनके इस डिजाइन को प्रतियोगिता में पहले पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

जब यह खबर बांचा में शिक्षा, पर्यावरण और जल संरक्षण के दिशा में पहले से ही काम कर रहे एनजीओ “भारत-भारती शिक्षा समिति” के सचिव मोहन नागर को एक स्थानीय अखबार के जरिए मिली, तो उन्होंने गांव में सोलर पैनल लगाने के लिए आईआईटी मुंबई से बातचीत शुरू की।

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इस कड़ी में मोहन ने बताया, “उन्होंने सौर ऊर्जा का इंडक्शन मॉडल बनाया था। इसमें एक परिवार के लिए दो समय का खाना आसानी से बन सकता था। जब मुझे मालूम पड़ा, तो मैंने उनसे बात की। लेकिन सोलर पैनल को इंस्टाल करने में खर्च काफी ज्यादा आ रही थी। जिससे काफी दिक्कत हो रही थी।”

उन्होंने आगे बताया, “एक सोलर पैनल की कीमत करीब 70 हजार रुपए थी और इतना खर्च करना यहां के लोगों के लिए मुमकिन नहीं था। कोई उपाय न देख, हमने ओएनजीसी से संपर्क किया और बताया कि इसका प्रयोग हम आदिवासी गांव बांचा में करना चाहते हैं। उन्होंने इसके लिए हां कर दिया और हमें सीएसआर के जरिए फंड मिल गए।”

बांचा में सोलर पैनल लगाने का काम सितंबर 2017 में शुरू हुआ और दिसंबर 2018 तक इसे पूरा कर लिया गया।

सोलर इंडक्शन पर खाना बनाती महिला

“बांचा के लोग पहले जंगल से लकड़ी लाते थे। इससे न सिर्फ जंगलों को काफी नुकसान होता था, बल्कि खाना बनाने के दौरान धुएं की वजह से सेहत पर भी बुरा असर पड़ता था। वे सदियों से जंगलों पर आश्रित थे, इस वजह से हमारे लिए उन्हें सौर ऊर्जा की ओर मोड़ना बड़ी चुनौती थी।”

लेकिन, जैसे-जैसे लोगों को इसके फायदों का अहसास हुआ, उन्होंने इसे अपनाना शुरू कर दिया।

क्या हैं विशेषताएं

आईआईटी मुंबई के इस प्रोजेक्ट के टेक्निकल मैनेजर के अनुसार, इसमें एक दिन में तीन यूनिट बिजली होती है, जिससे चार-पांच लोगों के एक परिवार का खाना आसानी से बन जाता है।

एक सेटअप में चार पैनल लगे होते हैं। स्टोव का वजन एक किलो का होता है और उसमें ताप बदलने के लिए तीन स्विच होते हैं।

मोहन ने बताया, “इस स्टोव पर दोनों समय का खाना आसानी से बन जाता है। खाना बनाने के अलावा लोगों को टीवी, बल्ब, पंखा चलाने में भी कोई दिक्कत नहीं होती है।”

आईआईटी मुंबई द्वारा बांचा गांव में लगाया गया सोलर पैनल

हालांकि, बारिश के मौसम में सोलर पैनल से बिजली बनने में दिक्कत भी होती है। इसे लेकर मोहन कहते हैं, “बारिश के मौसम में कभी-कभी दो-तीन हफ्ते तक धूप ठीक से नहीं उगती है। जिससे बैटरी ठीक से चार्ज नहीं हो पाती है। इसके अलावा लोगों को कभी दिक्कत नहीं आती है।”

मोहन बताते हैं कि लोगों को सोलर पैनल के ज्यादा रखरखाव की जरूरत नहीं पड़ती है और बीते चार-पांच वर्षों सभी पैनल सुचारू रूप से चल रहे हैं। आईआईटी मुंबई ने रिपेयरिंग के लिए गांव के दो लोगों को ट्रेनिंग भी दी है।

सोलर एनर्जी से मिल सकती है काफी राहत

आईआईटी मुंबई के एनर्जी साइंस और इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के प्रोफेसर और एनर्जी स्वराज फाउंडेशन के संस्थापक चेतन सिंह सोलंकी कहते हैं, “आज देश में एक एलपीजी सिलेंडर के इस्तेमाल से हर महीने 45-50 किलो कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है। यदि हमने सोलर एनर्जी को अपनाना शुरू कर दिया तो इसे काफी कम किया जा सकता है।”

गांव के लोगों सौर ऊर्जा के विषय में जागरुक करती आईआईटी मुंबई की टीम

वह कहते हैं कि बांचा गांव में स्थानीय लोगों की भागीदारी सबसे अहम रही। यही वजह है कि इतने वर्षों के बाद भी सभी सोलर सिस्टम ठीक से चल रहे हैं। नहीं तो कई बार देखने के लिए मिलता है कि सड़कों पर सोलर लाइट को लगा दिए जाते हैं, लेकिन उसका ज्यादा दिनों तक इस्तेमाल नहीं पाता है।

“तकनीक को विकसित करना और उसे लोकलाइज करना, दो अलग-अलग चीजें हैं। बांचा गांव में हमारे प्रयोग को जनभागीदारी के कारण ही इतनी सफलता मिली है। इससे लोगों में आत्मविश्वास बढ़ा है और तकनीक का काफी प्रभावी इस्तेमाल भी हो रहा है,” वह अंत में कहते हैं।

वास्तव में, एक आदिवासी बहुल गांव बांचा ने जनभागीदारी के जरिए खुद को आत्मनिर्भर बनाने में जो कामयाबी हासिल की है, वह देश के सभी गांवों के लिए एक उदाहरण है।

आप मोहन नागर से 9425003189 पर संपर्क कर सकते हैं।

लेखक – कुमार देवांशु देव 
संपादन – गिरीन्द्रनाथ झा 

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